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आयुर्वेद तथा पाचनसंस्थान
                --- डॉ. सरिता कापगते, पुणे 

आपका पाचनसंस्थान आपके स्वास्थ्य को बनाने रखने में बहुत महत्वपूर्ण काम करता है| पाचनसंस्थान उत्तम होने पर आप सामान्यत: किसी भी बीमारी के शिकार नहीं हो सकते|
इस पाचनसंस्थान के रक्षणार्थं आयुर्वेद में निम्न बातों का वर्णन आया है |

आयुर्वेद के प्रधान दो उद्देश्य है-
१. स्वस्थ व्यक्ति के स्वाथ्य को बनाए रखना|
२. व्याधिग्रस्त व्यक्ति का इलाज करना|

प्रथम लक्ष्यपूर्ति के लिए आयुर्वेद ग्रंथो में प्रकृतिनुसार योग्य आहार विहार सेवन, दिनचर्या पालन आदि का विस्तृत  वर्णन किया हैं| इसमे  भी आहार को  विशेष महत्व प्राप्त हुआ है क्योंकि आहार ही मनुष्य के बल वर्ण ओज का मूल है |

आयुर्वेद ग्रंथो में प्रकृतिनुसार आहार चयन  निर्धारण के लिए  ‘अष्टविध आहार विधि विशेषायतन’ का वर्णन किया है
   
 इसमे निम्न आठ अलग अलग बातों का निर्देश किया है –

१.      प्रकृति (Natural qualities):
अर्थात आहार द्रव्यों में स्थित उसके स्वाभाविक गुण |

      जैसे उडद की दाल स्वभावत: पचने में गुरु  और मुंग की दाल स्वभावत: पचने में हलकी होती है| दूध स्वभावत: गुणों में स्निग्ध तथा शीत होता है|
आहार सेवन करते वक्त द्रव्य के गुणों के अनुसार उसकी मात्रा, सेवन काल उस वक्त आपकी पचन शक्ति आदि का विचार किया जाना चाहिये| जो पदार्थ पचने में गुरु होते है , उनका सेवन करते वक्त मात्र में कम ही करना चाहिए | 


२.      करण (Method of preparation):
किसी भी आहाराद्रव्य पर भोजन पूर्व जो भी विविध पाक क्रियाये की जाती है ,उस कारान उनके स्वाभाविक गुणों में परिवर्तन लाये जा सकते है या उनमे नए गुण आते है|

उदाहरण: मंद आंच पर भूंजने पर सभी प्रकार की दाले पचने में हलकी होती है, वैसे ही अग्निसंस्कार से पचने में गुरु चावल हलके होते है| दही मथने के बाद लघु और जठराग्नि को बढ़ानेवाला होता है| इसलिए आहार ग्रहण करने के पहले उस पर योग्य संस्कार होना जरुरी होता है|

३. संयोग (Combination)
दो या अधिक द्रव्यों का एकत्र आना इसे संयोग कहते है| खाने के द्रव्य किन द्रव्यों के साथ मिले है यह महत्वपूर्ण है | जैसे दूध और फल संयोग करके  या शहद और घी समान मात्रा में एकत्र नही खाए जा सकते |
वैसे ही पनीर के साथ किसी भी सब्जी का संयोग यह पचने के लिए भारी होता है|

४. राशि (Quantum)
आपके लिए कितनी मात्रा में खाया गया आहार योग्य है यह निश्चित करना आवश्यक है | हर एक की यह मात्रा उसके पचनशक्ति के अनुसार अलग हो सकती है | 

५. देश (Habitat)
भारत में हर प्रांत के अनुसार विविध आहार पद्धति पायी जाती है | 
जैसे दक्षिण में इडली - डोसा तो उत्तर में पंजाबी पदार्थ | यह विशिष्ट आहार पद्धति उस प्रांत के लिए योग्य होती है | उन्हें दुसरे प्रान्त के लोग रोज खाने लगे तो उसका पचन पर अनुचित परिणाम होगा |
इसी प्रकार जिस प्रदेश में आपका जन्म हुआ है उस प्रांत के अनुसार व्यक्ति के पचन शक्ति का विकास होता है| 
जैसे पंजाबी लोग रोज पनीर पचाने की क्षमता रखते है परन्तु वही महाराष्ट्रियन लोगों के लिए अपचन का कारण बन सकता है | इसलिए सात्म्य आहार का सेवन तंदुरुस्त जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है | 

६. काल (Time)
स्वस्थ व्यक्ति को  ऋतू  अनुसार  आहार ग्रहण करना चाहिए | जैसे शीत काल में अर्थात हेमंत आदि ऋतू में स्वभावतः पचनशक्ति उत्तम होती है |
उस वक्त पचने में भारी पदार्थ अधिक मात्रा में भी सेवन किये जा सकते है | परन्तु वही पदार्थ गर्मी के दिनों के लिए स्वभावतः पचनशक्ति कम होने के कारण घातक सिद्ध हो सकता है | इसलिए गर्मी के दिनों में हलका और सुलभ आहार ग्रहण करे और भारी पदार्थ खाने भी हो तो वह कम मात्रा में खाए| वैसे ही विशिष्ट बिमारी में विशेष प्रकार का आहार लेने की सलाह दी जाती है उसका पालन करे| जैसे रक्तचाप के रुग्ण को नमक कम करने के लिए बताया जाता है | स्थूल व्यक्ति को तली हुई चीजे कम खाने का निर्देश किया जाता है |  अत: आहार सेवन में बीमारी और ऋतू का विचार करना चाहिए |

७. उपयोग संस्था : (Rules of use)
    आहार सेवन करते समय पालन करने के नियमों को उपयोग संस्था  कहते है | पहले खाए हुए अन्न का उचित पचन होने के बाद अच्छी तरह से भूक लगने पर ही दूसरा अन्न ग्रहण करे |  

सामान्यत: दो खाने में ३ घंटे का अवकाश हो | ऐसा करने से पूर्व के अपाचित अन्न में नए अन्न के आ जाने से पचनसंस्था पर भार नही आता | पूर्व में  खाए अन्न का यदि उचित पचन नहीं हुवा हो तो  उसे पचने के लिए समय देना चाहिए | ऐसे वक्त एक समय उपवास रखना यह उत्तम मार्ग है | उसी प्रकार से आहार ग्रहण करते समय आहार मात्रा में, गरम और स्निग्ध हो | वह बहुत जल्दी या बहुत धीरे धीरे नहीं खाना चाहिए | वह मनपसंद हो| कुछ नापसंद खाना यदि शरिर के लिए लाभदायक हो तो भी उसे पूरी श्रद्धा से खाए | जादा बाते करते हुए या टी व्ही देखते हुए भोजन ना करे | 
इस तरह सदा शरीर पुष्टि के लिए धन्यवाद के भाव से मन लगाकर आहार ग्रहण करे |

८. उपयोक्ता (User)
 जो स्वयं आहार का सेवन करता है उसे उपयोक्ता कहते है | किसी विशिष्ट प्रकार का आहार लाभदायक या कष्टकर (allergic) हो सकता है | 
इसलिए अपने प्रकृति सात्म्यता का पूर्ण विचार कर आहार सेवन करना चाहिए | जब उपरोक्त बातों को दुर्लक्षित करके अतिमात्रा अकाल तथा अहितकर  आहार सेवन किया जाता है तब वह आहार अन्नवह संस्था के दुष्टि का कारण बन जाता है | अन्नवह संस्था की दुष्टि को निम्न लक्षणों से जाने जा सकता है -  
अन्न सेवन  की इच्छा नष्ट होना , मुह का स्वाद बिगडना, अन्न पचन ठीक से न होना, उल्टी जैसे लगना, पेट में जलन, पतली संडास होना, पेट में वायु भर जाना, खट्टी डकार आना, मुह में  छाले पड़ जाना, पेट साफ ना होना आदि | 
    इस तरह आयुर्वेद में पाचनसंस्था  के स्वास्थ्य रक्षण एवं रोग नाश के लिए विस्तृत विवेचन किया गया है | इन नियमो का पालन कर व्यक्ति आपना स्वास्थ्य अपने काबू में रख सकता है